मधुपुर में एवरग्रीन ट्रस्ट की दो बीघा ज़मीन को निगल गया भू-माफिया
Madhupur News: शहर में भू-माफिया हावी है। मधुपुर के बावन बीघा रोड में मंगलम के ठीक सामने में दो बीघा ज़मीन एवरग्रीन ट्रस्ट के नाम पर था, इस ट्रस्ट का इतिहास आजादी से पहले का है। एवरग्रीन ट्रस्ट आज़ादी के पूर्व से ही सक्रिय था। जब भारत पर अंग्रेजों का शासन रहा होगा। जो अभी वर्तमान में (हल्का: 06/265, खाता नंबर: 59, होल्डिंग नंबर: 59, पृष्ट संख्या: 83 एवं वर्तमान भाग: 02) ऑफिसियल ट्रस्टी ऑफ ऑफ वेस्ट बंगाल के नाम पर रजिस्टर्ड-2 में दर्ज है।
एवरग्रीन ट्रस्ट को हरिचंद्र दत्ता ने बनाया था, इसका मुख्य कार्यालय कोलकाता श्यामपुकुर में था। हरिचंद्र दत्ता जी ने यहां के गरीब-गुरुवा का सेवा के लिए एवरग्रीन ट्रस्ट बनाया था। एवरग्रीन ट्रस्ट के द्वारा वर्ष में एक बार आस-पास के लोगों को कपड़ा एवं पैसों से मदद किया करते थे।
बताया जाता है कि हरिचंद्र दत्ता की पत्नी सरोजनी दासी और अपने दो पुत्र के साथ यहां आया करते थे। एवरग्रीन ट्रस्ट के बारे में उन्होंने कहा था कि ये संपति किसी निजी और व्यक्तिगत कार्यों के लिए इस्तेमाल नहीं होगा, साथ ही मेरे बाद मेरी पत्नी सरोजनी दासी और फिर मेरा पुत्र इसका ट्रस्टी होगा। बताया जा रहा है इस एवरग्रीन ट्रस्ट का कोई ट्रस्टी वर्तमान में जीवित नहीं है, जिसके वजह से स्वत: प्रॉपर्टी ऑफिसियल ट्रस्टी ऑफ वेस्ट बंगाल के अधीन हुआ होगा।
अब सवाल उठता है इतना दांव पेच होने के बावजूद ये ट्रस्ट की जमीन बिक कैसे गया? हरिचंद्र दत्ता जी ने कई सवाल छोड़ कर चले गए। एवरग्रीन कैंपस में कई पेड़ और एक मंदिर भी था, जिससे लोग पूजा करके पेड़ के फलों का भी आनंद लेते थे। आहिस्ता-आहिस्ता भूमाफिया का नज़र इस ज़मीन पर पड़ा और पूरा ज़मीन कब बिक गया पता ही नहीं चला। वर्तमान में न अभी मंदिर है, न ही पेड़ है।
आखिर मंदिर को नष्ट करने का अधिकार किसने दिया, पेड़ काटने का अधिकार किसने दिया, प्रॉपर्टी को तोड़ने का अधिकार किसने दिया और ट्रस्ट की जमीन कैसे बिक गई। ये तमाम सवाल यहां के आम नागरिकों को सोचना चाहिए। यहां के पदाधिकारियों और प्रशासन के मिली भगत से ये सारा खेल हुआ है। अगर ये सिलसिला यूं ही चलता रहा तो आप और हम भी सुरक्षित नहीं रहेंगे। सामाजिक संस्था, जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए झारखंडियों ने कुर्बानी दी है।
इसकी रक्षा करना हमारा भी कर्त्तव्य है। अगर इससे हम वंचित रह गए तो, आने वाली हमारी पीढ़ी हम पर गौरव नहीं करेगी बल्कि हमें कोसेगी। झारखण्ड की ज़मीन पर सैकड़ों वर्षों से दूसरों का नज़र रहा है, इसकी रक्षा हम मूलनिवासी झारखंडियों को ही करना पड़ेगा वरना एक दिन हम अपने ही राज्य में गुलाम बनकर रह जायेंगे।